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दि॒वो न सानु॑ स्त॒नय॑न्नचिक्रद॒द्द्यौश्च॒ यस्य॑ पृथि॒वी च॒ धर्म॑भिः । इन्द्र॑स्य स॒ख्यं प॑वते वि॒वेवि॑द॒त्सोम॑: पुना॒नः क॒लशे॑षु सीदति ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

divo na sānu stanayann acikradad dyauś ca yasya pṛthivī ca dharmabhiḥ | indrasya sakhyam pavate vivevidat somaḥ punānaḥ kalaśeṣu sīdati ||

पद पाठ

दि॒वः । न । सानु॑ । स्त॒नय॑न् । अ॒चि॒क्र॒द॒त् । द्यौः । च॒ । यस्य॑ । पृ॒थि॒वी । च॒ । धर्म॑ऽभिः । इन्द्र॑स्य । स॒ख्यम् । प॒व॒ते॒ । वि॒वेवि॑दत् । सोमः॑ । पु॒ना॒नः । क॒लशे॑षु । सी॒द॒ति॒ ॥ ९.८६.९

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:86» मन्त्र:9 | अष्टक:7» अध्याय:3» वर्ग:13» मन्त्र:4 | मण्डल:9» अनुवाक:5» मन्त्र:9


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - जो परमात्मा (दिवः सानु) द्युलोक के उच्च शिखर को (स्तनयन्) विस्तार करने की (न) नाई (अचिक्रदत्) गर्ज रहा है (च) और (यस्य धर्मभिः) जिसके धर्मों से (द्यौः) द्युलोक और पृथ्वीलोक स्थिर हैं, वह परमात्मा (इन्द्रस्य) कर्मयोगी के (सख्यं) मैत्रीभाव को (पवते) पवित्र करता है तथा (विवेविदत्) प्रसिद्ध करता है। वह (सोमः) परमात्मा (पुनानः) हमको पवित्र करता हुआ (कलशेषु) हमारे अन्तःकरणों में (सीदति) विराजमान होता है ॥९॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में परमात्मा ने इस बात का निरूपण किया है कि द्युलोक और पृथिवीलोक किसी चेतन वस्तु के सहारे से स्थिर हैं और उस चेतन ने भी जगत्कर्तृत्वादि धर्मों से इनको धारण किया है। वेद में इतना स्पष्ट ईश्वरवाद होने पर भी सायणादि भाष्यकार इन मन्त्रों को जड़ सोमलता में लगाते हैं और ऐसे मिथ्या अर्थ करना ब्राह्मण और उपनिषदों से सर्वथा विरुद्ध है। देखो “सा च प्रशासनात्” २।३।११। इस सूत्र में महर्षि व्यास ने “शतपथब्राह्मण” के आधार पर यह लिखा है, कि “एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि ! द्यावापृथिव्यौ विधृते तिष्ठतः” बृ. ३।८।९। इस अक्षर की आज्ञा में हे गार्गि ! द्युलोक और पृथिवीलोक स्थिर हैं। इससे स्पष्ट सिद्ध है कि यहाँ ईश्वर का वर्णन है, जड़ सोम का नहीं ॥९॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - यः परमात्मा (दिवः, सानु) द्युलोकस्योच्चशिखराणि (स्तनयन्) विस्तारयन् (न) इव (अचिक्रदत्) गर्जति (च) पुनः (यस्य, धर्म्मभिः) यत्पुण्यैः (द्यौः) द्युलोकः, अपि च (पृथिवी) पृथिवीलोकस्तिष्ठति, स परमात्मा (इन्द्रस्य) कर्म्मयोगिनः (सख्यं) मित्रतां (पवते) पवित्रयति। तथा (विवेविदत्) प्रसिद्धयति। सः (सोमः) परमात्मा (पुनानः) मां पवित्रयन् (कलशेषु) मदन्तःकरणेषु (सीदति) विराजते ॥९॥